स्तोत्र 11
11 1 मैंने याहवेह में आश्रय लिया है. फिर तुम मुझसे यह क्यों कह रहे हो: “पंछी के समान अपने पर्वत को उड़ जा. 2 सावधान! दुष्ट ने अपना धनुष साध लिया है; और उसने धनुष पर बाण भी चढ़ा लिया है कि अंधकार में सीधे लोगों की हत्या कर दे. 3 यदि आधार ही नष्ट हो जाए, तो धर्मी के पास कौन सा विकल्प शेष रह जाता है?” 4 याहवेह अपने पवित्र मंदिर में हैं; उनका सिंहासन स्वर्ग में बसा है. उनकी दृष्टि सर्वत्र मनुष्यों का देखती है; उनकी सूक्ष्मदृष्टि हर एक को परखती रहती है. 5 याहवेह की दृष्टि धर्मी एवं दुष्ट दोनों को परखती है, याहवेह के आत्मा हिंसा, प्रिय पुरुषों से घृणा करते हैं. 6 दुष्टों पर वह फन्दों की वृष्टि करेंगे उनके प्याले में उनका अंश होगा अग्नि; गंधक तथा प्रचंड हवा. 7 याहवेह युक्त हैं, धर्मी ही उन्हें प्रिय हैं; धर्मी जन उनका मुंह देखने पाएंगे.